मिर्ज़ा ग़ालिब की हवेली में क़ैद शायरों की मोहब्बत

“मुझे यहां अजीब- सी सुख़न और अजीब -सा लहजा मिलता है. कहीं न कहीं सुकून प्राप्त करने आता हूं. महीनें में एक या दो बार ज़रूर आता हूं. यहां अपने आप को खोज पाता हूं ग़ालिब की नज़्मों में और ग़ालिब की गलियों में. मुझे एक नज़्म याद आ रही है -
                                   “कोई वीरानी सी वीरानी है
                                    दश्त को देख के घर याद आया.”
ये बातें और नज़्म कहते मिले मिर्ज़ा ग़ालिब की हवेली में आए श्याम सिंह. श्याम सिंह पटना में कोचिंग चलाते हैं. इनके जैसे शायरी के शौक़ीन हज़ारों लोग ग़ालिब की हवेली में रोज़ शिरकत करते है. मिर्ज़ा ग़ालिब का पूरा नाम मिर्ज़ा असद- उल्लाह बेग खां है.प्यार से लोग ग़ालिब कहने लगे. आगरा में जन्में ग़ालिब , घर से दूर दिल्ली की इसी हवेली में रहते थे.
ग़ालिब की हवेली दिल्ली के चावड़ी बाज़ार मेट्रो स्टेशन से लगभग पांच किलोमीटर दूरी पर बल्लीमारान की गली कासिमजान में स्थित है. ग़ालिब की हवेली फाइव स्टार होटल की तरह तो नहीं है, लेकिन शायरों के लिए जन्नत ज़रूर है. हवेली के बाहर की गली शोर और चौंकाचौक से भरी पड़ी है. वहीं हवेली में इसके विपरीत शायरी की ख़ुशबू आती है.
ग़ालिब की हवेली की संरचना की ख़ूबसूरती , संरचना से नहीं बल्कि शायरी से है. उनकी शायरी कमरें के हर दीवार पर लिखी हुई है. उत्तरप्रदेश से ग़ालिब की हवेली देखने आए कमलेश तिवारी कहते हैं “ ग़ज़ल और शायरी को असली पहचान तो मिर्ज़ा ग़ालिब ने ही दी . ग़ालिब ने अपनी नज़्मों में अमन , पेगाम और मोहब्बत को दर्शाया है. उनकी एक शायरी मुझे याद आ रही है-


                                                      “ हज़ारों ख्वावाहिशें ऐसी कि हर
                                                        ख़्वाहिश पे दम निकले
                                                         बहुत निकले मिरे अरमान
                                                         लेकिन फिर भी कम निकले.”
मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू और पारसी भाषा के महान शायर थे. हिंदुस्तानी ज़बान पर मजबूत पकड़ थी. ग़ालिब मुग़लकाल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे हैं. पाकिस्तान और हिंदुस्तान में एक महत्त्वपूर्ण कवि के रूप में जाने जाते हैं.
ग़ालिब की जितनी बड़ी छवि है, उसके उलट आज ग़ालिब की हवेली बची है. हवेली के नाम पर सिर्फ़ चार कमरें हैं. कमरों के बीच में छोटा -सा आंगन है. हालांकि मिर्ज़ा ग़ालिब की सभी चीज़ें आज भी संभालकर रखी हुई हैं इसी हवेली में. जैसे मिर्ज़ा ग़ालिब की हुक्का पीते हुए मूर्ति , उनके कपड़े, उनकी पत्नी के वस्र , शतरंज , उनकी किताबें रखी हुई हैं. इसके अलावा क़ुरान और पारसी में लिखी हुई शायरी भी रखी हुई हैं.

इसी हवेली में एक पोस्टर पर ग़ालिब की पत्नी उमराव बेगम का ज़िक्र है. इस पर लिखा है कि ग़ालिब का जब उमराव बेगम से विवाह हुआ था , तब ग़ालिब महज़ तेरह वर्ष के थे और उमराव बेगम बारह वर्ष कीं . ग़ालिब को उनसे शिकायत रहती थी कि वे उनकी शायरी को नहीं समझती और उनकी प्रशंसा नहीं करती थी. इसके बावजूद उमराव बेगम ने जीवित रखने तक अपनी ज़बान पर शिकायत का एक शब्द भी न लाईं.
कहा जाता है कि ग़ालिब को अपने घर में सुकून ना मिला तो घर बदल लिए, लेकिन दर्द छुपा ना सकें . ग़ालिब लिखते हैं-


                                            “उग रहा दर -ओ- दीवार पे सब्ज़ा ग़ालिब
                                              हम बयाबां में हैं और घर में बहार आई है.”
ग़ालिब की हवेली एक ऐतिहासिक विरासत है. सरकार ने इसे म्यूज़ियम बना दिया है. लेकिन ग़ालिब की बदकिस्मत ऐसी है कि लोगों ने इसी हवेली में अपना घर बना लिया है. बाइक और साइकिल भी हवेली के अंदर खड़ी रहती है. बरसात में आंगन में पानी भर जाता है. लोगों ने फ़ोटोस्टेट की दुकानें भी अंदर ही खोल रखी हैं. जो शायरी भी लिखी हुई हैं उसमें भी वर्तनी की ग़लतियां हैं.
ग़ालिब किसी चारदीवारी के मोहताज नहीं हैं. उनका शायरी में योगदान सबक़ोपता है. मगर उनकी हवेली का हाल बतात है कि हम अपनी विरासत को कैसे रखते हैं?
ग़ालिब हमें छोड़कर चले तो गए . लेकिन आज भी शायरों के दिल के क़रीब है. अगर शायरी भी कोई ज़हन में आती है तो उन्हीं की याद आती है.
                                      “लौट आओ ग़ालिब, तेरी गली तनहा है     
                                         दर -ए - दीवार ये हवेली तनहा है.”
पेश हैं ग़ालिब की कुछ नज़्में -
1. हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिनदिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है
2. इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जानादर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
3. काबा किस मुंह से जाओगे 'ग़ालिब'शर्म तुम को मगर नहीं आती
4. कहां मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहां वाइज़पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले

Write a comment ...